Monday, August 15, 2011

घनीभूत पीड़ा


१५ अगस्त २००५ को मैंने अपनी पुस्तक ‘कांटा लगा’ के लेखकीय में लिखा था, मेरी परेशानी यह है कि मैं इसी नाम के अपने कॉलम को खबर कि तरह नहीं लिख सकता, यानी यह नहीं हो सकता कि जब मर्ज़ी इसे लिख डालूँ. वह तो जब कोई ऐसा समाचार पढ़ता हूँ जिससे मन में पीड़ा होती है या जब कभी मन क्रोध, क्षोभ, आक्रोश से भर उठता है, तब वह पीड़ा, वह आक्रोश घनीभूत होकर कागज पर उतर आता है. इसे इस तरह भी कह सकते हैं, जब मन में कहीं कांटा चुभता है और उससे टीस उभरती है, तो जो प्रतिक्रिया होती है, उसे कह सकते हैं उफ़ ‘कांटा लगा!’
हर लेखक चाहता है उसे ऐसा मसाला रोज़ मिले, जिसे वह अक्षरों में ढाल कर पाठकों कि वाहवाही लूट सके, लेकिन मैं चाहता हूँ कि ऐसा मैटर कभी न मिले कि मुझे इस तरह कि चीज़ें लिखने की इच्छा हो. क्योंकि जब भी ऐसा लिखता हूँ या ऐसी घटना सामने आती है तो दिल दुखता है. सोचता हूँ जब इनके बारे में जान कर इतना दिल दुखता है तो जिनपर बीतती है उनका दिल कितना दुखता होगा? इसलिए भगवान से मेरी प्रार्थना है कि ऐसी घटनाएँ न घटें.

यह था ‘कांटा लगा’ का लेखकीय जिसकी भूमिका लब्ध प्रतिष्ठित पत्रकार नंदकिशोर नौटियालजी ने लिखी थी. छह साल कुछ नहीं लिखा. आज से फिर शुरु कर रहा हूँ क्योंकि परिस्थितियां बाद से बदतर होती जा रही हैं. सोनिया सरकार (कहने को भले यह मनमोहन सरकार है) की आज कि स्थिति मुझे १९७४ के जेपी आंदोलन से निबटने में इंदिरा सरकार की याद दिला रही है. समय का एक पूरा चक्र घूमकर वहीँ पहुंच गया है. जैसे इंदिरा को सिद्धार्थ शंकर राय ने आपातकाल लगाने की सलाह दी थी लगभग वही भूमिका कपिल सिब्बल निभा रहे हैं. जिस तरह संजय को बंसीलाल घुमा रहे थे, उसी तरह राहुल को दिग्विजय घुमा रहे हैं. इंदिरा ने जेपी की तुलना हिटलर से कर दी थी, उसी तरह से आज अन्ना को भ्रष्टाचारी कहा जा रहा है. उस समय हिटलर के प्रचार मंत्री का अवतार बने थे विद्याचरण शुक्ल, आज सारे कांग्रेसी यह भूमिका निभा रहे हैं.
उस समय बिहार में छात्रों के शांतिपूर्वक चलने वाले मोर्चे पर कांग्रेसी पुलिस कि लाठी बरसी थी आज रामदेव के मोर्चे पर. कुल मिलाकर स्थिति गंभीर होती जा रही है. कहते हैं इतिहास खुद को दोहराता है. तो मित्रों जल्दी ही एक और आपातकाल आ जाए तो यह आश्चर्य कि बात नहीं होगी. इसके लिए तैयार रहें!